Thursday, April 15, 2010

उठो देश के वीर सपूतों...........

उठो देश के वीर  सपूतों, उठो प्रचंड  हुंकार भरो,
मानवता की रक्षा हेतु,अब आलस का तिरस्कार करो|
उठो वीर संकल्प लो, अब हर अन्याय मिटाना है,
ग्रहण लगे उस सूर्य को, उसका शौर्य लौटना है|

उठो वीर नकुल बनो, हर शकुनी को मिटाने को,
उठो वीर राम बनो, रामराज्य वापस लाने को|
भ्रष्टाचार के इन कीड़ो को उनकी जगह बताने को,
उठो, बढ़ो, निर्भय लड़ो, माटी की महिमा लौटने को|

इस माटी ने कई वीरो को अपनी कोख में खिलाया है,
और असंख्य दुराचारियों को अपने आगोश में सुलाया है|
यहाँ के नल-नील के समक्ष पूरा सागर पड़ा बौना था,
यह धरती है उस महावीर की, जिसके लिए सूर्य भी एक खिलौना था|

यह धरती है उस छाती की, जिसने वज्रपात को झेला है,
यह धरती है उस पुरु की, विश्व विजेता को जिसने धकेला है|
यह धरती है उस पृथ्वी की, बिन चक्षु जिसने शत्रु पर वार किया,
यह धरती है उन अवतारों की, जिसने असुरों का संहार किया|

हिमगिरी की विशालता लांघने, वो कदम हमारे ही चले थे,
एवरेस्ट को शर्मसार करने, प्रथम पग हमारे की बढे थे|
एक मुठ्ठी नमक से जब, हमने पूरी सत्ता हिलाई थी,
निर्दोषों की एक चीख पर, जब पूरी फ़ौज घबराई थी|

इसकी कोख के सपूतों ने, काल पे भी प्रहार किया है,
यही के जन्मे किसी परशु ने, तेरह बार संहार किया है|
भुज-बल की क्या बात करूँ मैं, अब क्या कहना बाकी है,
अथाह विशाल पर्वत के लिए तो हमारी कनिष्ठा ही काफी है|

यही के नारायण के तप पर, पूरा देवलोक हारा था,
भागीरथ के मानस बल ने, गंगा को धरती पर उतारा था|
चीर सीना समुद्र का हम अमृत ढूंढ कर लाए थे,
भरत,अर्जुन और कर्ण हम ही कभी कहलाये थे|

आज जरूरत है खुद में उसी पौरुष को जगाने की,
भ्रष्टाचार, कुनीति और आतंक, सबको जड़ से मिटाने की|
उठो, बढ़ो और नेतृत्व करो, दबे कुचलों की टोली को,
खुशहाली, प्रेम और नवउमंग से भर दो माँ की झोली को|

करो कुछ ऐसे कार्य कि,ये जग तुम्हारे गुण गाये,
और तुम्हारी उपस्थिति मात्र से, हर प्राणी हरसाए|
रचो इतिहास पुनः ताकि, सिंधु फिर तुम्हारा गुणगान करे,
वीरों कि इस धरती को, हिमालय भी झुक कर सलाम करे|

Tuesday, March 16, 2010

क्या करूँ

          क्या करूँ
उनके हाँ के इंतज़ार में, दिल ने थी पलकें बिछायी|
उम्मीदों के फूल ने खुशियों की थी सेज सजायी|
आज  होकर  नाउम्मीद जब वो  फूल मुरझाएं|
क्या  करूँ? जब बहार पतझड़ बन जाये|

एक भोर जो उठ-कर मुझे एक सपना दे गया|
एक टीस, सीने में, जाते हुए कोई अपना दे गया|
मेरा मुकद्दर, मेरी तन्हाई, शायद अब सुकून दिलाये|
क्या करूँ? जब दुःख में आंसू भी न बह पायें|

एक दर्द था तब आँखों में, जो बिना बहे रह गया|
पर उसका हर कतरा, एक नई कहानी कह गया|
आज वही कहानी, अनायास ज़ज्बातों में उभर आयें|
क्या करूँ? जब धड़कन ही दिल दुखा जाए|

क्यूँ करू शिकवा? वो  तो  सुंदरता की  मूरत थी|
दिल की कोई गलती नहीं, गुनेहगार तो अपनी सूरत थी|
क्यों कोई सुनहरी कली, कीचड़ में खुशबू बरसाए?
क्या करूँ? जब  खुद का आईना  शर्मशार कर जाये|

भावनाओं की सरिता में, एक  मूक प्यार बह गया|
पूनम की रात में भी, मेरा चाँद अधूरा रह गया|
आज उन्ही बेचैन रातों में कोई चेहरा उभर कर आये,
क्या करूँ? जब किस्मत खुद से दगा कर जाये|

Friday, February 19, 2010

मैंने पूछा कौन है वो..









मैंने पूछा कौन है वो-
कह गया कोई अपना सा है|
यादों  की  धूंध  में  ओझल,
भूला  हुआ  कोई सपना सा है|
ख्वाबों  में  उड़ता  है  जो,
स्वपनलोक  के आकाश  में,
जो  बसा  है  मेरी  रूह  में,
मेरे मन में, मेरे एहसास में|
जो  अब  करता है अटखेलियाँ,
मेरे हृदय में, मेरे विश्वास में|
अनायास ही कभी उभर आया था,
मेरे  जीवन  की हर  श्वास  में|
एक  कवि के  ह्रदय  से निकला,
वो  बस  एक  कल्पना  सा  है|
मैंने पुछा कौन है वो-
कह गया कोई अपना सा है|

याद, जो पास होकर भी पास नहीं,
कुछ पल जो बचे अब खास नहीं,
मेरे हृदय से उमड़ी एक आँधी,
जिसपर खुदा को था विश्वास नहीं,
या मेरे प्यार की इन्तहाई का ,
हुआ कभी उसे  एहसास नहीं|
हर रात विरह  दर्द में जागता,
खुद में कल्पित एक सपना सा है|
मैंने पूछा कौन है वो-
कह गया कोई अपना सा है|

जीवन के पतझड़ में,  वो खुशियों की बहार है,
दुःख की मरुभूमि पर,   वो ठण्ड की फुहार है,
मेरे ख्वाबों के समुद्र  में, वो गूंजने वाली मल्हार है,
मेरी इस वीरानी दुनिया  का, वो इकलौता उपहार है,
एक पवित्र आयत पर लिखी, मेरी जिंदगी का सार है|
उसे शायद अब ख्याल नहीं मेरा, पर
मुझे उसकी तमन्ना हर बार है|
जिसकी शीत विरह में, मुझे बस कंपना सा है|
मैंने पुछा कौन है वो-
कह गया कोई अपना सा है| 

Tuesday, February 9, 2010

SLAVES OF NIT ROURKELA

Welcome guys! welcome at a new face of NIT Rourkela, where the difficulties of life is some what near to the life of desert. where you have to wander in frustration in search of water. This is Homi Bhabha Hall of Residence in NIT Rourkela, where we got shortage of water, uneatable food, mental torture by warden and also many things which will left no any option or way to make your life miserable.They wish us the enjoyful stay here, but what they give? They give us a situation to attend classes without doing any early day works, they restrict us to get drinking water after 10PM, they restrict us to live in shorts even in our hostels,they punctured our cycles, they restrict us to play music in our rooms, they knock our doors at 4AM to check whether we are really sleeping our doing any anti-social activity.New rules are welcomed only when it is in favour of the majority but here new rules comes only because they want them to impose on us irrespective of our convenience and wish.   And because of all these tortures if any of the student does something out of frustration they tell that he is indisciplined and we are coward. They are our profs., they have our career in their hand. If they wish they can ruin it easily either by giving less TA, our by allotting less marks in exams our by simply putting a DISCO on us. We have to suffer it because they are our Profs. and because of that we have to restrict our frustration and feelings from coming out. And the only reason behind it is that "WE ARE NOT STUDENTS OF NIT ROURKELA RATHER WE ARE SLAVES OF NIT ROURKELA." We have came here only to hear and see them silently and work accordingly. We are not cared here, we are ruled by them. They behaves like jailers of the jail named Homi Bhabha Hall of residence. We have come here for only one task- to suffer. To suffer the busy schedule of classes, to suffer the food of mess, to suffer the mental torture by the warden and moreover to suffer our helplessness.

Saturday, January 30, 2010

The best day in NITRkl.............



‘26th January’  the best day of my NITRkl life. Truly I was very happy as I was ever be in my whole NIT life. This is my first time when I am failing to express my feelings in my words and it is because everytime I have tried to express my feelings perfectly in my words. But first time I have realized that my literature is so weak to search the words which can express them perfectly. The experience of sharing the feelings with the children and orphans is really different which I first time experienced.  First time I realized that the enequality created by the god may be the boon for the humanity, it depends only on the way we accept it as AASRA has accepted. The eyes looking to us with immeasurable love and affection makes a different sense.
Getting a huge family away from our original family where you are looked with certain demands. Stubborn like family as our younger brothers and sisters demand to us, all these are very  pleasant and peace giver. That time the my whole NIT life seemed meaningful which I had spent in frustration. When I realized that Yeah! I have got something after coming here, the place of zero emotion and full frustration. The eyes fully drowned with affection and the hands with affinity are beyond any judgement of grades and award. These pictures are the witness of the smiles that was made by the AASRAites. This is our family to which we have choosen without any narrow thinking of regionality, language and culture and it is because all AASRAites think that the concept of humanity, love and affinity is above all these narrow concepts.
The children to whome I am not bloodly related, they complain to me “Bhaina! Aapna amasangade katha hountti nee”(Brother! You don’t talk to us), then I felt that the people who do politics and quarrel on the basis of religion, region, language and cast, they really are completely untouched with this type of great opportunities. After spending so much time with this little angels I felt that today also the words like love, humanity, affinity and selflessness have their meanings on this earth irrespective of time and people.

Friday, October 23, 2009

व्यथा....................


कहते हैं कि सफलता पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है| पर इस सच के पीछे एक सच और छुपा हुआ है,जो शायद महसूस सबने किया पर कहा किसी ने नहीं| वो सच ये है कि कुछ चीजें इन्सान से सफलता मिलने के बाद छुट जाती हैं| इस देश के अट्ठाईस राज्यों में से एक राज्य के लाखो कस्बों में से एक कस्बे के उन अनगिनत लोगो के बीच में शायद मेरी पहचान कम पर जाये, पर मैं.....मैं तो खुद में ही अकेला,सिर्फ अकेला था| अपने जीवन के हर पड़ाव से गुजरते हुए अपने सपनों को पूरा करने कि जिद्द लिए हुए मैं कब कितना आगे निकल गया शायद आज तक मुझे इसका आभास तक नहीं| इस सफ़र में कई ऐसी चीजें और कई ऐसे वृतांत आये जिनका जिक्र करना यहाँ पर संभव नहीं है, या फिर यूँ कहिये वो सब मेरी निजता से सम्बंधित है|पर फिर भी उन् सबने मेरे ऊपर गहरी छाप छोड़ी| अपनी मेहनत,और अपनों का सहारा इन्ही दोनों को अपनी बैसाखी बना कर चलने वाले मेरे नन्हे कदम अचानक इतने बड़े हो गए कि उनकी आहट मेरे सपनों कि दुनिया तक पहुँच गयी| शैक्षणिक रूप से पिछडे हुए एक परिवार से सम्बन्ध रखने के बावजूद मैंने खुद को यहाँ तक पहुँचाया,इसके पीछे मेरी आकांक्षाएं ही थी, जिन्हें मैं पूरा करना चाहता था|पर अब जब मुझे वो सब मिला तो भी मैं खुश नहीं हूँ,....क्यों?अब क्यों लगता है कि शायद मैंने कुछ खो दिया|.........शायद यही मेरे लिए सफलता की कीमत है|

पर मेरी उदासी का कारण मात्र इतनी सी बात नहीं है| बात मेरे खुद के एहसास की है|एक मेंढक काफी कोशिश कर कुँए से निकल आया|सबकी नज़र में वो निहायत ही मेहनती और सफल प्राणी है| पर उसे क्या मिला? इस सफलता की कीमत उसने क्या दी?वो अपनों को तो वही छोड़ आया| इस सफलता के लिए उसे उनसे दूर रहना पड़ा|एक ऐसी दुनिया में आना पड़ा जहाँ उसका अपना कोई नहीं है|जहाँ उस जैसा शायद ही कोई हो और अगर कोई होगा भी तो तो बताएगा नहीं क्योंकि वो भी उसी भावना से ग्रसित पड़ा है| फिर उस कुँए से
निकलने का क्या फायदा मिला?इसके बावजूद वो साहस करके आगे बढ़ता है,सफलता के इस महल में छुपी प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता है और फिर हारकर एक दिन मेरी तरह निराश हो जाता है| क्योंकि जिस सफलता की दुनिया में वो आ चुका है,वहां के हिसाब से उसका कद छोटा,रंग मटमैला और चल धीमी है| क्योंकि ये दुनिया उसके तरह के मेढको की नहीं बल्कि रेस में भागने वाले घोड़ों की है,क्योकि यह रेस का वो प्रतियोगी है जो हमेशा पीछे छूट जाता है|पर इसमे उसकी क्या गलती है,अगर वो थोडा सा सांवला,थोड़ा सा छोटा और थोड़ी कम गति वाला है|ये तो उसके वश में नहीं था| उसके वश में तो उसके हृदय में बसने वाली वो भावनाएं हैं,जिन्हें लेकर ही वो हर बरसात में अपनी पूरी आवाज़ में(भले ही वो आवाज़ भी इस दुनिया के लिए काफी धीमी हो)लोगो को आने वाली बरसात की खुशी देकर खुश हो जाता है|पर गति के पीछे भागने वाली इस दुनिया को ये भावना ना कभी दिखी है,ना कभी दिखेगी| अंततः वो मेंढक जो कभी अपने कुँए में नामी था,इस दूसरी दुनिया में गुमनाम रह जाता है,उस शांत हवा की तरह जिसके होने का एहसास भी किसी को नहीं होता|
कहते हैं की जिंदगी में उतार-चढाव आतें रहते हैं,पर मेरी जिंदगी के एक चढाव ने मुझे अनायास ही उस उतार मे पंहुचा कर छोड़ दिया है,जहाँ हर रोज आईने के सामने खड़ा एक विनीत खुद से वादा करता है कि आज जरूर जीतेगा,पर हर शाम एक पराजित इंसान मुह ढँक कर सो जाता है| ताकि अगले दिन फिर से अपने एक और पराजय की कहानी दोहरा सके| पर फिर भी इन बातों का कोई महत्व नहीं,क्योंकि यहाँ के लोगो का बौद्धिक स्तर मुझसे काफी ऊँचा है और शायद ज्यादा ऊंचाई पर खड़े लोगो को नीचे की हर चीज़ धुंधली दिखाती है,और शायद इतनी छोटी चीजों पर गौर करने के लिए ना तो उनके पास समय है और ना ही चाहत
|

Monday, October 19, 2009

पत्थर में फूल खिलाता हूँ..............................

एक कविता जो मेरे विद्यालय जीवन में मेरे एक वरिष्ठ विद्यार्थी ने लिखी थी........................


आज पूर्णिमा की रात में भी,
आमवस्या सी क्यूँ छाई है?
देवों की इस स्वर्णिम धरा पर,
नरक सी क्यूँ बन आई है?

आसमान से गोले बरसे ,
दिक्-दिग्गंत सब काँप रहे हैं|
अब विनाश है अवश्यम्भावी,
सब प्राणी ये भांप रहे हैं|

ये रंग नहीं है पर्व का,
ना आज दिवाली होली है|
ये तो इंसानियत के खून से सनी,
हैवानियत की गोली है|

कितनो के पुत्र मरते है,
कितनो की मांग उजडती है|
कितनो की गोद सूनी है,
कितनी बहने भाई को खोती हैं|

देखो ये धरा चीत्कार रही,
अपने पुत्रों पे रोती है|
फिर भी दंगा-फसाद से यह,
नित दिन लाल होती है|

पर..पर पड़ोसी तू अभी कच्चा है,
एक छोटा नन्हा बच्चा है|
स्वार्थ हो क्यूँ भूल गया?
क्या बांग्लादेश की मात भूल गया?

कितने युद्ध छेड़े तुने,
कितने टेरेरिस्ट भेजे तुने|
पर तेरी हिमाकत तार तार हुई,
हर बार तेरी ही हार हुई|

भारत माता की जय बोल जिस दिन हम घुस जायेंगे|
तेरे हर कपूत को हम घर से घसीट कर लायेंगे|
चुन-चुन के हरेक को हम,बीच बाज़ार में मारेंगे|
सोच ले अपना हश्र,जब हम तेरी इज्जत उतारेंगे|


आतंक को बढा कर तुम,
क्या खुद साबुत बच पाओगे?
जिस दिन नज़र फेर देंगे,
सूली पे चढ़ जाओगे|

अरे हमारी शांति भंग कर,
क्या खुद चैन से सो जाओगे?
आर्याव्रत की गर्जना में,
चूर-चूर हो जाओगे|

हर बुराई का आखिर,
होता है अंजाम बुरा|
जिसने दिया आतंक का साथ,
भोंका उसने उसी को छूरा|

वक़्त रहते नवयुवकों,
थाम लो आकर मशाल|
बुला रहे है तुमको बापू,
भगत सुभाष जवाहरलाल|

आज तुम्हारी ही है जरूरत,
इसलिए तुमको बुलाता हूँ|
वक़्त के हर पहलू से मैं,
सबको सचेत कर जाता हूँ|

कोई सुने या ना सुने,
मैं गीत क्रांति का गाता हूँ|
भारत का रहने वाला हूँ,
पत्थर में फूल खिलाता हूँ|