Tuesday, March 16, 2010

क्या करूँ

          क्या करूँ
उनके हाँ के इंतज़ार में, दिल ने थी पलकें बिछायी|
उम्मीदों के फूल ने खुशियों की थी सेज सजायी|
आज  होकर  नाउम्मीद जब वो  फूल मुरझाएं|
क्या  करूँ? जब बहार पतझड़ बन जाये|

एक भोर जो उठ-कर मुझे एक सपना दे गया|
एक टीस, सीने में, जाते हुए कोई अपना दे गया|
मेरा मुकद्दर, मेरी तन्हाई, शायद अब सुकून दिलाये|
क्या करूँ? जब दुःख में आंसू भी न बह पायें|

एक दर्द था तब आँखों में, जो बिना बहे रह गया|
पर उसका हर कतरा, एक नई कहानी कह गया|
आज वही कहानी, अनायास ज़ज्बातों में उभर आयें|
क्या करूँ? जब धड़कन ही दिल दुखा जाए|

क्यूँ करू शिकवा? वो  तो  सुंदरता की  मूरत थी|
दिल की कोई गलती नहीं, गुनेहगार तो अपनी सूरत थी|
क्यों कोई सुनहरी कली, कीचड़ में खुशबू बरसाए?
क्या करूँ? जब  खुद का आईना  शर्मशार कर जाये|

भावनाओं की सरिता में, एक  मूक प्यार बह गया|
पूनम की रात में भी, मेरा चाँद अधूरा रह गया|
आज उन्ही बेचैन रातों में कोई चेहरा उभर कर आये,
क्या करूँ? जब किस्मत खुद से दगा कर जाये|

3 comments:

आशीष अंकुर said...

उम्दा... शब्द नहीं हैं|

विनीत गुप्ता said...

आप सबका मेरी इस रचना पर टिपण्णी करने के लिए धन्यवाद| आप लोगो की टिप्पणियां ही मुझे आगे लिखने की प्रेरणा देतीं हैं|

Anonymous said...

IZHAAR KAR DO...